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Student and Politics। विद्यार्थी और राजनीति

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विद्यार्थी और राजनीति

आइए ! हमारे साथ इस चर्चा में सहभागी बनिए। पूरा वीडियो देखने में दिक्कत हो, तो संक्षेप में आप हमारी चर्चा के मुख्य बिन्दुओं को पढ़ भी सकते हैं-
भूमिका : आज हमारी चर्चा का विषय है- ‘विद्यार्थी और राजनीति’। आप जानते हैं कि देश-दुनिया की तमाम क्रांतियों एवं आंदोलनों में विद्यार्थियों की महती भूमिका रही है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सैकडों विद्यार्थियों ने न केवल अपने कैरियर, वरन् अपने जीवन की भी आहुति दी थी। आजादी के बाद भी कई छात्र आंदोलन हुए, जिनका समाज एवं राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ा है। इस कड़ी में हम लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चलाए गए संपूर्ण क्रांति आंदोलन को नहीं भूल सकते हैं।
विद्यार्थी : पहले हम आज के अपने विषय को समझने का प्रयास करें। हमारे विषय का पहला भाग है-विद्यार्थी। आप जानते हैं कि विद्यार्थी शब्द दो शब्दों के योग से बना है-विद्या एवं अर्थी। इसका शाब्दिक अर्थ है विद्या चाहने वाला, विद्या के लिए उद्यम करने वाला, विद्या से प्रेम करने वाला। इस अर्थ में गर्भस्थ शिशु से लेकर मरणासन्न वृद्ध तक सभी विद्यार्थी की श्रेणी में आ जाते हैं। बस शर्त एक ही है कि उनमें विद्या की चाह हो, कुछ सीखने की तमन्ना हो। लेकिन सामान्य तौर पर नर्सरी से लेकर पी-एच. डी. तक की पढ़ाई में लगे समूह को विद्यार्थी माना जाता है।
विद्यार्थियों के गुण : विद्यार्थियों के कई गुण बताए गए हैं। सबसे पहला एवं अनिवार्य गुण तो है विद्या या ज्ञान के प्रति चाहत। जब तक चाहतों का यह सिलसिला चलता रहता है, हम विद्यार्थी बने रहते हैं। इसके अलावा भी कई अन्य गुण आवश्यक बताए गए हैं। एक संस्कृत श्लोक में कहा गया है, “काकचेष्टा बकोध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च। अल्पहारी गृहत्यागी विद्यार्थी पंचलक्षणम्॥”अर्थात् विद्यार्थी के पाँच लक्षण हैं-
1. काकचेष्टा। कौए की तरह चेष्टा। सब ओर दृष्टि, त्वरित निरीक्षण क्षमता।
2. बकोध्यानं। बगुले की तरह ध्यान।
3. श्वाननिद्रा। कुत्ते की तरह नींद। अल्प व्यवधान पर नींद छोड़कर उठ जाय।
4. अल्पहारी। कम भोजन करने वाला।
5. गृहत्यागी। अपने घर-परिवार का अधिक मोह न रखने वाला।
सम थिंग डिफिरेंट : विद्यार्थी होना कुछ खास  होना है। सभी विद्यार्थी मनुष्य होते हैं, लेकिन सभी मनुष्य विद्यार्थी नहीं कहे जा सकते हैं।एक अन्य श्लोक में कहा गया है, “सुखार्थिनः कुतो विद्या विद्यार्थिनः कुतो सुखम्॥ सुखार्थी वा त्यजेत विद्या विद्यार्थी वा त्यजेत सुखम्।।”
अर्थात्, सुख चाहने वाले को विद्या छोड़ देनी चाहिए और विद्या चाहने वाले को सुख छोड़ देना चाहिए। क्योंकि सुख चाहने वाले को विद्या नहीं आ सकती और विद्या चाहने वाले को सुख कहाँ ?
त्रिगुण : और भी कई गुण हैं। लेकिन मैं यहाँ मैं आप सबों का ध्यान सिर्फ तीन गुणों की ओर दिलाना चाहता हूँ। वह है- ज्ञान, शील एवं एकता। आप सभी यह जानते होंगे कि यह परिषद् का सूत्र वाक्य भी है।
1. ज्ञान : यहाँ ज्ञान का अर्थ है विद्या या विवेक, जिसकी हम पहले भी चर्चा कर चुके हैं। विवेक सत्य एवं असत्य का ज्ञान। न्याय एवं अन्याय का ज्ञान। उचित एवं अनुचित का ज्ञान। धर्म एवं अधर्म का ज्ञान। यह सम्यक् दृष्टि है। यह मात्र सूचनाओं का संग्रह या तथ्यों का संकलन मात्र नहीं है।
शिक्षा केवल बौद्धिक वाग्-विलास या जीविकोपार्जन का जरिया मात्र नहीं है, बल्कि यह व्यक्तिगत एवं सामाजिक मुक्ति का सम्यक् मार्ग है। शिक्षा समाज-परिवर्तन का एक जरूरी औजार है। शिक्षा के जरिए ही शोषणकारी व्यवस्थाओं को नष्ट किया जा सकता है, सभी प्रकार की रूढ़ियों, कुरीतियों एवं अंधविश्वासों को दूर किया जा सकता है और सभी कृत्रिम बंधनों को तोड़कर मनुष्य को मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठित किया जा सकता है। इस तरह केवल शिक्षा ही समाज को रूढ़ियों, जड़ताओं, कुरीतियों एवं बंधनों से मुक्त कर सकती है।अतः, शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मानव व्यवहार में साकारात्मक परिवर्तन कर उनका चारित्रिक विकास होना चाहिए। जो व्यक्ति चरित्रहीन एवं विनयरहित है, उनका जीवन पशु से भी गया गुजरा है। शिक्षा से विवेक पैदा होता है, जिससे अच्छे-बुरे का ज्ञान एवं निर्णय लेने की क्षमता विकसित होती है। यह मनुष्य को स्वयं के अधिकार एवं कर्तव्य समझाने में सहायक होती है।
2. शील : विद्यार्थियों का दूसरा गुण है शील। शील अर्थात् चरित्र। ज्ञान का कर्म के रूप में प्रकटीकरण शील है। कहा गया है कि “ज्ञानं भारं क्रिया बिना।” कहा गया है कि टनभर उपदेश से तोला भर आचरण बेहतर है। आचरण या चरित्र के बिना ज्ञान वैसे ही है, जैसे खूबसूरत लिबास में लिपटा हुआ मुर्दा शरीर। भारतीय परंपरा में ज्ञान से अधिक चरित्र को महत्व दिया है। यहाँ महाकाव्य महाभारत के एक महत्वपूर्ण पात्र दुर्योधन की चर्चा समीचीन है। उन्होंने एक जगह कहा है, “जानामि धर्मम् न च में प्रवृत्ति:। जानामि अधर्मम् न च में  निवृत्ति।” अर्थात् मैं धर्म को जानता हूँ, लेकिन उस ओर मेरी प्रवृत्ति नहीं है,  मेरी उसमें रूचि नहीं है। मैं अर्धम को भी जानता हूँ, लेकिन मेरी उससे निवृत्ति नहीं है, मैं उसे छोड़ नहीं पा रहा हूँ। जाहिर है कि उनका ज्ञान बेकार है। यहाँ यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कि हमें ज्ञान के अनुरूप आचारण करने के लिए निरंतर आभ्यास करने की जरूरत होती है। हम अभ्यास के द्वारा धर्म या सत्कर्मों की ओर प्रवृत्त हो सकते हैं और अधर्म या कुकर्म का त्याग कर सकते है। अभ्यास से ही मनुष्य सिद्धियाँ प्राप्त करता है और ज्ञान एवं चरित्र की ऊँचाईयों को प्राप्त करता है। “करत- करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान। रसरी आवत-जातते शिल पर पड़त निशान।”
हम जानते हैं कि ‘शिक्षा’ एक दुधारी तलवार की तरह है। इसका अनुचित एवं उचित दोनों तरह से प्रयोग हो सकता है। डाॅ. अंबेडकर के शब्दों में, “कोई पढ़ा-लिखा आदमी यदि शीलसंपन्न होगा, तो वह अपने ज्ञान का उपयोग लोगों के कल्याण के लिए करेगा, लेकिन यदि उसमें शील नहीं होगा, तो वह आदमी अपने ज्ञान का दुरुपयोग लोगों को नुकसान पहुँचाने के लिए करेगा।”
3. एकता : ज्ञान एवं चरित्र के बाद तीसरा सूत्र है एकता। यह एकता एकात्म भाव है एकात्मकता है। यह सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चरित्र का सहज परिणाम है। सम्यक् ज्ञान से हमें इस सत्य का बोध होता है कि सभी चराचर जगत एक है। सभी एक-दूसरे से जुड़े हैं। एक का सुख या शुभ दूसरे के सुख या शुभ पर निर्भर है। यदि पूरे ब्रह्मांड में कहीं भी कुछ घटित होता है, तो उसका हमारे ऊपर भी प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव पड़ता है। इस एकताभाव या एकात्मभाव के बाद सभी प्रकार के वैर, द्वेष का नाश हो जाता है। फिर प्रेम एवं भाईचारा का जन्म होता है। सिर्फ अपने संगठन, अपने धर्म या अपने देश के लोगों के साथ ही नहीं  बल्कि अन्यों के साथ भी प्रेम। यह प्रेम विस्तृत होकर सभी जीवों पशु-पक्षियों, जंगलों, नदी-पहाड़ों और चराचर जगत तक फैल जाता है। यही ज्ञान की परम गति है और यही चरित्र की सर्वोच्च चोटि भी है।
राजनीति की अनिवार्यता : राजनीति हमारे जीवन के सभी आयामों से गहरे जुड़ी है। जीवन का कोई भी आयाम राजनीति से अछूता नहीं है। यह जीवन के सभी आयामों को प्रभावित करती है, संचालित करती है और निर्धारित करती है। महात्मा गाँधी ने भी कहा है, “आज राजनीति ने हमें साँप की कुंडली की तरह चारों ओर से घेर लिया है। हमारे जीवन का प्रत्येक क्षेत्र राजनीति से ही परिचालित, संचालित एवं नियंत्रित हो रहा है। हम राजनैतिक मशीन में इस तरह से फँस गए हैं की राजनीति में भाग लिए बिना जनसेवा करना असंभव है।”
https://youtu.be/kU1OENe6io8

(बीएनएमयू संवाद के लिए आपकी रचनाएं एवं विचार सादर आमंत्रित हैं। आप हमें अपना आलेख, कहानी, कविताएं आदि भेज सकते हैं।
संपर्क वाट्सएप -9934629245)

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