BNMU # ‘शोध : मिथक और यथार्थ’ विषयक व्याख्यान का आयोजन

शोध एक सुव्यवस्थित, क्रमबद्ध एवं उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया है। इसके माध्यम से नए ज्ञान को प्रकाशित किया जाता है अथवा पुराने ज्ञान की नई व्याख्या की जाती है अथवा पुराने ज्ञान की कमियों को दूर किया जाता है या त्रुटियों का परिमार्जन किया जाता है। यह बात बीएनएमयू के असिस्टेंट प्रोफेसर (दर्शनशास्त्र) सह जनसंपर्क पदाधिकारी डॉ. सुधांशु शेखर ने कही। वे शोध बिहार फेसबुक पेज पर व्याख्यान दे रहे थे। इसका विषय शोध : “मिथक और यथार्थ” था। इसमें शोध को लेकर शोधार्थियों के मन में आने वाली भ्रांतियों एवं प्रश्नों के समुचित समाधान का प्रयास किया गया।

डाॅ. शेखर ने बताया कि शोध’ शब्द ’शुध्’ धातु से ‘घञ’ (अ) प्रत्यय द्वारा निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ है-संस्कार, शुद्धि, शोधन या संदेह निवारण। ‘शोध’ के लिए अन्वेषण, गवेषणा, अनुशीलन, परिशीलन, समीक्षा, आलोचना, खोज, अनुसंधान इत्यादि शब्दों का प्रयोग किया जाता है। अंग्रेजी भाषा में ‘शोध’ के लिए सामान्यतः ‘रिसर्च’ शब्द का प्रयोग होता है। लेकिन यहाँ ‘रिसर्च’ का अर्थ पुनः खोज करना नहीं है। यह नई खोज करना या पुरानी खोज का परिमार्जन अथवा उसकी नई व्याख्या है।
डाॅ. शेखर ने बताया कि शोध की प्रक्रिया से नवीन ज्ञान की वृद्धि एवं विकास किया जाता है। इसमें सामान्य नियमों तथा सिद्धान्तों के प्रतिपादन पर बल दिया जाता है। यह प्रक्रिया वैज्ञानिक, व्यवस्थित तथा सुनियोजित होती है। इसमें विश्वसनीय तथा वैध प्रविधियों को प्रयुक्त किया जाता है। यह तार्किक, बौद्धिक तथा वस्तुनिष्ठ प्रक्रिया है।
डाॅ. शेखर ने बताया कि हम विश्वविद्यालय की पी-एच.डी. डिग्री में नामांकन लेकर और पंजीयन कराकर औपचारिक रूप से शोधार्थी बन सकते हैं। लेकिन सही मायने में तो आप शोधार्थी तभी कहलाएंगे, जब आप शोधार्थी के आवश्यक गुण-धर्म को धारण करेंगे।

डाॅ. शेखर ने बताया कि शोध हेतु विषय के चयन में काफी सावधानी रखनी चाहिए। फिर शोध-प्रारूप यानि सिनाॅप्सिस को ठीक ढंग से सोच-समझकर तैयार करना चाहिए। शोध- विषय ऐसा हो कि जिसमें शोधार्थी की रूचि हो और वो ज्ञान के क्षेत्र में कुछ योगदान कर सके। शोधार्थी को आँखमूंद कर विश्वास नहीं करना चाहिए। तर्क-विवेक की कसौटी पर कसने के बाद ही किसी तथ्य को स्वीकार करना चाहिए।

डाॅ. शेखर ने बताया कि शोध में कोई भी बात बिना प्रमाणिक संदर्भ के नहीं कहना चाहिए। संदर्भ लेखन में एकरूपता रखनी चाहिए। उदाहरण- शेखर, सुधांशु; गाँधी-विमर्श, दर्शना पब्लिकेशन, भागलपुर (बिहार), 2015, पृ. 25.

डाॅ. शेखर ने यह अवसर देने के लिए शोध बिहार से जुड़े डाॅ. सुग्रीव एवं गौरव रंजन सहित सभी लोगों के प्रति आभार व्यक्त किया है। उन्होंने बताया कि इसके पूर्व महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति प्रोफेसर डाॅ. रजनीश कुमार शुक्ल और इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र के सदस्य-सचिव डाॅ. सच्चिदानंद जोशी सहित कई गणमान्य लोग यह व्याख्यान दे चुके हैं। अतः ऐसा अवसर मिलना सौभाग्य की बात है।

कार्यक्रम में शामिल विकास पदाधिकारी डाॅ. ललन प्रसाद अद्री, सिंडीकेट सदस्य द्वय डाॅ. जवाहर पासवान एवं गौतम कुमार, शोधार्थी रंजन यादव, सारंग तनय, सौरभ कुमार चौहान, ब्रिजेश कुमार, डेविड यादव आदि ने इस व्याख्यान को काफी उपयोगी बताया। ठाकुर प्रसाद महाविद्यालय, मधेपुरा में कम्प्यूटर ऑपरेटर मणीष कुमार और शोधार्थी सौरभ कुमार चौहान ने तकनीकी पहलुओं को संभाला।