Bihar। कीर्ति नारायण मंडल : व्यक्तिव एवं कृतित्व / प्रो. (डॉ.) नरेश कुमार, महासचिव, बीएनमुस्टा, मधेपुरा, बिहार

कीर्ति नारायण मंडल : व्यक्तिव एवं कृतित्व

ठाकुर प्रसाद महाविद्यालय मधेपुरा, मधेपुरा में महामना कीर्ति नारायण मंडल की जयंती कार्यक्रम में आना एक सुखद अनुभव दे रहा है। आज यह कार्यक्रम आनंदित कर रहा है, आहलादित कर रहा है। यह स्थान चेतना जागृत करने का स्थान है। यह पुण्य क्षेत्र है, जिसको एक महात्मा ने स्थापित किया। इसकी विशालता इससे प्रमाणित होती है कि इसके द्वारा एक विश्वविद्यालय का निर्माण होता है। इस विशाल वृक्ष से फलित व्यक्ति के द्वारा आज 50 से उपर महाविद्यालय का निर्माण हुआ। उस महात्मा को आज हमलोग श्रद्धा सुमन अर्पित कर रहे हैं।

 

मधेपुरा, सिंहेश्वर एवं मनहरा मिलकर एक समबाहु त्रिभुज बनाता है। मधेपुरा अनुमंडल मुख्यालय होता है। सिहेंश्वर शिव का मुख्यालय है। त्रिभुज के एक शीर्ष पर छोटा सा गाँव मनहरा अवस्थित है। जहाॅं कई महापुरुषों का अवतरण होता है। इनमें आजादी के पहले से देश के लिए शहीद होने वाले शहीद चुल्हाय यादव, आजादी के पूर्व एवं बाद में भी नागरिकों को बेहतर जिन्दगी देने के लिए हमेशा प्रयत्नशील कमलेश्वरी प्रसाद मंडल और देश को मजबूत बनाने के लिए शैक्षिक रूप से सबल एवं जिम्मेदार नागरिक बनाने हेतु अपना सर्वस्व दान देने वाले कीर्ति नारायण मंडल पैदा होते हैं।

यह गाँव प्रारंभ से ही अध्यात्मिक दृष्टिकोण से भरा पूरा था। गांव के लोग आर्थिक रूप से भी संपन्न था जहाँ हाथी, घोड़ा, गाय, भैंस पालने का शौकीन थे। इसी गाँव में एक बाबूराम मंडल का परिवार भी है। यह परिवार में प्रारंभ काल से अध्यात्मिक, सहिष्णु, दानी और दूसरे को हमेशा मदद करने के लिए अपने क्षेत्र में जाने जाते हैं। बाबूराम मंडल के पोते ठाकुर प्रसाद मंडल के घर में 7 अगस्त, 1911 को एक साधारण बालक कीर्ति नारायण मंडल पैदा लेता है। बालक का लालन- पालन इस परिवार में सभी सुविधापूर्ण स्थिति में होता है। परिवार में दादा, दादी, माता, पिता, चाचा, चाची, बुआ, भाई, बहन, भाभी, भतीजे, से भरा पूरा परिवार होता है। किसी चीज की कमी नहीं।

बालक की उम्र बढ़ती जाती है और समझ भी बढ़ती जाती है। यह बात समझ में आने लगती है कि पढ़ाई का क्या महत्व है। अपनी पढ़ाई गाँव के स्कूल से पूरा कर मधेपुरा के सीरीज इंस्टीच्यूट में नामांकन कराते हैं। वह आजादी की लड़ाई का निर्णायक दौर होता है। चारों तरफ आजादी की लड़ाई में गांव के प्रबुद्ध लोग काफी सक्रिय हो गए। इसी बीच अध्यात्म का असर होने के कारण से समझने लगे कि मनुष्य योनि में जन्म केवल एक कार्य करने के लिए नहीं होता है। शायद इस व्यक्ति को प्रारंभ में ही इसकी अनुभूति हो गई थी।
अध्यात्मिक मान्यताओं के अनुसार चैरासी लाख योनियों में भ्रमण के बाद एक बार मनुष्य योनि मिलता है यह उसकी परीक्षा का समय होता है, वह उँचा उठने, आगे बढ़ने और अधिक उचाई की स्थिति में पहुंचने लायक है या नही, इसी बात की परीक्षा देने के लिए जीव मनुष्य शरीर में आता है। अगर इस परीक्षा में सफल हुआ, तो उसे आगे की उच्च स्थिति में स्वर्गादि देव योनि प्राप्त होने का अवसर मिलता है। अन्यथा उसे पुराने कक्षा में लौटा दिया जाता है।

शायद इसी सोच के कारण से पढ़ाई से मन हटने लगा और बहुत कुछ करने की इच्छा जागृत हुई। इनके बड़े भाई राजकिशोर मंडल के पुत्र भूपेन्द्र नारायण मंडल जो भागलपुर विश्वविद्यालय में बी. ए. की पढ़ाई कर रहा था। उनको नास्ता के लिए चूड़ा, पैसा आदि लेकर भागलपुर पहुँचाने जाते थे। वहां बहुत सारे शैक्षणिक संस्थानों को देखने का मौका मिला था।

आज आजाद भारत में भारत के सभी नागरिकों प्रबुद्धजनों के मन में आकांक्षा है कि देश कैसे तरक्की करेगा, समाज कैसे आगे बढ़ेगा? इस तरक्की में समाज की भूमिका क्या होगी? मेरे हिस्से की जबावदेही क्या होगी? जबावदेही निभाने के लिए क्या योग्यता होगी ?

बस यहीं से अपने समाज को बनाने, देश को तरक्की के रास्ते पर लाने के लिए वह व्यक्ति आगे आता है, जिनके पास जमीन है, बड़ी योग्यता नहीं। इनके पास जज्बा है, बड़ा अनुभव नहीं। इनके पास इच्छाशक्ति है, सपाट रास्ता नहीं। कुछ करने की संकल्पना है, लेकिन टीम नहीं। ऐसे व्यक्ति की पढ़ाई घर के सामने के पोखर पर फूस के दो चारी स्कूल में हुई थी। बचपन में रामायण और गीता का ज्ञान परिवार के बुजुर्गों से ही मिला। फिर स्कूल पास करने पर मधेपुरा में सीरीज इंस्टीच्यूट में डेढ़ से दो साल रहे, लेकिन स्कूल में वातावरण अनुकूल नहीं होने के कारण से आगे की पढ़ाई नहीं कर सके। लेकिन शिक्षा को अधूरा छोड़ने का मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा जिसके कारण से आगे शिक्षा क्षेत्र में आम आदमी के लिए, बिना भेदभाव का शिक्षा व्यवस्था स्थापित करने का दृढ़ निश्चय किया। एक बार कीर्ति बाबू को गाॅंव के बगल के जगबनी गाॅंव के विनोवा भावे से प्रभावित गाॅंधीवादी सियाराम मंडल के यहाॅं जाने का मौका मिला, जो दूध मिश्री, फल खा कर ही रहते थे वहीं से कीर्ति बाबू अन्न छोड़ने का निश्चय किया और अन्त तक प्रायः फल फूल आलू खा कर ही गुजारा करते थे।

पहली बार गाॅंव में दो चारी स्कूल से एक छोटा सा स्कूल बनवाए। फिर मैट्रिक पास, इन्टर पास छात्रों के लिए मधेपुरा के गाँधी कमलेश्वरी प्रसाद मंडल एवं अन्य के साथ मिलकर शिक्षक बनने के लिए 1950 में सामूहिक रूप से 27 बीघा 5 कट्ठा जमीन दान देकर ट्रेनिंग स्कूल का निर्माण करवाया, जो उस समय के सहरसा जिला में एक मात्र ट्रेनिंग स्कूल था।

1952 में मैट्रिक पास छात्रों के लिए उच्च शिक्षा हेतु एक काॅलेज बनवाते हैं और उसमें 51 एकड़ जमीन दान में देते हैं। इस महाविद्यालय का नाम होता है ठाकुर प्रसाद महाविद्यालय। इस संस्थान को तत्कालीन राजनीतिक प्रभाव वाले समाजवादी विचारक भूपेन्द्र नारायण मंडल एवं सामाजिक न्याय के पुरोधा स्वधन्यनामधन्य बी. पी. मंडल के साथ मिलकर इस महाविद्यालय को काफी आगे बढ़ाया। इस महाविद्यालय के प्रथम प्रधानाचार्य श्री रतनचंद हुए जो खुद शालीन एवं उच्च कोटि के शिक्षाविद् और बेहतर प्रबंधक थे। टी. पी. काॅलेज को डा. महावीर प्रसाद यादव जैसे शख्सियत मिले, जो शिक्षक, उप प्रधानाचार्य, प्रधानाचार्य के रूप में काफी प्रभावी रहे। जो कालांतर में महाविद्यालय के लिए विश्ववकर्मा साबित हुए। इस महाविद्यालय में छात्रों की संख्या बढ़ाने के लिए टी. पी. काॅलेजिएट उच्च विद्यालय का निर्माण भी कीर्ति बाबू ने किया। इस महाविद्यालय को 1974 में अंगीभूत होने के बाद छात्रों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि एवं अभिभावक के आग्रह पर 1978 में कीर्ति नारायण मंडल ने अपने माता के नाम पर 21 एकड़ जमीन दान में देते हुए पार्वती विज्ञान महाविद्यालय खोला, जो छात्रों के लिए वरदान साबित हुआ। लेकिन छात्रों की संख्या इतनी अधिक होने लगी थीं कि महाविद्यालय में नामांकन नहीं हो पाता था। फिर कीर्ति नारायण मंडल ने मधेपुरा में ही संत अवध बिहारी देवकृष्ण महाविद्यालय, रतनेशनंदन महाविद्यालय, बाबा विसुराउत महाविद्यालय, चैसा, हंसी मंडल महाविद्यालय, बिहारीगंज, अम्बिका उपेन्द्र महाविद्यालय, मुरलीगंज के साथ-साथ कोसी क्षेत्र के सहरसा में बी. एस. काॅलेज, सिमराहा, डी. एल. काॅलेज, बैजनाथपुर, मृत्युंजय नारायण मिश्र, काॅलेज परिवर्तित नाम दिनेशचंद्र यादव काॅलेज, सिमरी बख्तियारपुर, सुपौल में के. एन. इंटर काॅलेज एवं डिग्री काॅलेज, राघोपुर, अररिया जिले के फाॅरबिसगंज में, पूर्णियाँ, कटिहार, खगड़िया के ब्लाॅक स्तर पर लगभग 34 महाविद्यालयों का निर्माण किया गया। प्रत्येक महाविद्यालय को चलाने के लिए 7 से 11 एकड़ जमीन भी निबंधित किए। लेकिन अपने नाम पर महाविद्यालय खोलने से हमेशा परहेज करते थे। वे खुद आत्म प्रशंसा से परहेज करते थे। एक बार संत अवध कीर्ति नारायण डिग्री महाविद्यालय के जमीन रजिस्ट्री में उनका नाम जोड़ने के कारण से कई दिनों तक वो नाराज रहे, वो हमेशा शिक्षकों को सम्मान देते थे और कभी-कभी तो कुर्सी कम पड़ जाने पर अपनी कुर्सी भी शिक्षक को बैठने के लिए दे देते थे।

उन्हें रामायण और महाभारत की गहरी समझ थी। वो हमेशा बोलते थे कि शैक्षणिक संस्थान को गुरूकूल के जैसा होना चाहिए जैसे राम राजा दशरथ के पुत्र होने के बावजूद भी पढ़ने के लिए गुरूकूल गए, गुरू को बुलाया नहीं गया। इसी प्रकार कृष्ण पढ़ने के लिए संदीपनी मुनी के यहाॅं गए। गुरू को अपने घर नहीं बुलाए। इसका अर्थ समझाते थे कि गुरू और शिष्य को गुरूकूल में एक साथ होने से उसे बहुत कुछ सीखने का मौका मिलता है। वे एडूकेशन एवं लर्निंग में फर्क समझाते थे। उनका मानना था कि हमारे छात्रों को एडूकेशन से अधिक लर्निंग की आवश्यकता है, जहाॅं गुरू और शिष्य एक साथ होता है और उसे सिखाया जाता है, उसे संस्कारित किया जाता है।

वे निजीकरण के विरोधी थे। एक बार 1997 के मार्च में मुझे टेक्स देना था और मैं इन्कम टैक्स का पेपर भर रहा था। वो मुझसे पूछ रहे थे कि टेक्स क्यों देते हैं ? उनकी नजर में टैक्स के पैसे से सरकार विकास का कार्य सड़क, सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य के लिए व्यवस्था करती है। लेकिन आज हर जगह निजीकरण हो रहा है। हम सुरक्षा के लिए प्रायवेट गार्ड रखतें हैं। बच्चे को सरकारी स्कूल के बदले कन्वेन्ट भेजते हैं। बिजली के लिए जेनरेटर रखते हैं, तो सरकार टेक्स क्यों लेती है? सरकारी कर्मी और बड़े-बड़े नेता भी सरकारी अस्पताल में नहीं जाकर निजी अस्पताल में जाते हैं, तो टैक्स के पैसे से सरकार क्यों नहीं बेहतर प्रबंधन करती है ?

कीर्ति बाबू नियंत्रण एवं प्रबंधन में फर्क को समझाते थे। उनका मानना था कि एक नियंत्रक बेहतर प्रबंधक नहीं हो सकता है। संस्थान के प्रधान को नियंत्रक नहीं, प्रबंधक होना चाहिए, तब संस्थान का विकास होता है। वे रामायण के राम और हनुमान का उदाहरण देकर समझाते थे। कहते थे कि हमें हनुमान के जैसा छात्र तैयार करना चाहिए। उसे जाग्रित करना पड़ता है। उसे बताना पड़ता है कि तुम में अक्षय उर्जा है। उसे जाग्रत कर बेहतर प्रबंधक होने का अहसास कराना पड़ता है। राम ने जब हनुमान को लंका भेजा था, तो हनुमान के पास कोई संसाधन नहीं था। वे केवल अपनी देह और अपने प्रबंधन कौशल के बल पर रावण के अभेद्ध किला भेदकर पता कर लेते हैं कि सीता माता कहाॅं है। वे अकेले रावण सेना से लड़कर सुरक्षित लौट आते हैं, जबकि जाते समय ना अपना खाना था ना कोई अपनी सवारी। खाना भी लंका का, डोरी भी लंका की, तेल भी लंका का और आग भी लंका का और जली भी लंका। इसी प्रकार शिक्षक का कार्य केवल पढ़ाना ही नहीं है, बल्कि विद्यार्थियों में जिज्ञासा उत्पन्न करना भी है। उस जिज्ञासा को शांत करना भी शिक्षक का कार्य होता है। यह तभी होगा, जब शिक्षक और छात्र अपने कैम्पस में आमने-सामने होंगे।

कीर्ति बाबू का मानना था कि शिक्षक का दर्जा माता-पिता से उपर होता है। वो द्विज शब्द का व्याख्या करते थे और बताते थे कि मनुष्य का दो बार जन्म होता है। एक बार माॅं के गर्भ से जन्म लेता है, जहाॅं उसे स्वतंत्र इकाई प्राप्त होती है, अपना अस्तित्व प्राप्त होता है। दूसरा जन्म शिक्षक के द्वारा ज्ञान से प्राप्त होता है, जहाॅं उसे एहसास होता है कि मैं कौन हूॅं, मैं क्यों पैदा लिया हूॅं, मुझे क्या करना है, मेरा उद्देश्य क्या है उसकी जिज्ञासा जाग्रत होती है।इस जिज्ञासा को शिक्षक शांत करते हैं। इसीलिए शिक्षक माता पिता से उच्च श्रेणी का होता है।

वो हमेशा गरीब छात्रों को पढ़ाने के लिए भोजन, वस्त्र और काॅलेज फी भी दिया करते थे बाद में दो गरीब छात्रों को पढ़ाने के लिए सारा खर्च उठाने लगे और अपने बदन पर गंजी, कुर्ता भी पहनना छोड़ दिए और इस राशि से गरीब बच्चों को पढ़ाते थे। इनके याद एवं सम्मान में आज भी मैं दो गरीब छात्रों को प्रति वर्ष पढ़ाने का कार्य करता हूं।

आज समाज में जाति-धर्म पराकाष्टा पर है। प्राय: शैक्षणिक संस्थानों में जाति-धर्म के आधार पर शिक्षकों एवं कर्मचारियों का चयन किया जाता है। लेकिन कीर्ति नारायण मंडल ने अपने स्कूल काॅलेज में जाति धर्म से हटकर शैक्षणिक योग्यता को प्रश्रय दिया। आज भी इनके महाविद्यालयों में विभिन्न जातियों एवं धर्म के शिक्षक नियुक्त हुए और बेहतर प्रदर्शन भी है, वो सामाजिक समरसता में विश्वास करते थे। लेकिन जाति के नाम पर शोषण के विरोधी थे।

कीर्ति नारायण मंडल ने 1978 में एक ट्रस्ट का निर्माण किया, जिनके माध्यम से मधेपुरा में मेडिकल काॅलेज और इंजीनियरिंग काॅलेज का निर्माण करना था। लेकिन अपने जीवन काल में उनका ये सपना पूरा नहीं हो सका। हालांकि मधेपुरा को उनके सपने का मेडिकल काॅलेज एवं इंजीनियरिंग काॅलेज आज प्राप्त हो चुका है।

कीर्ति नारायण मंडल महात्मा बुद्ध के जैसे गृहत्यागी थे। उनमें कबीर के जैसे अपने कार्य के प्रति फक्कड़पन था। वे महात्मा गाँधी के जैसे दृढ़ निश्चय के साथ सत्य, अहिंसा एवं सत्याग्रह के बल पर अपने समाज एवं राष्ट्र को आगे ले जाने का एक मजबूत मनोबल रखते थे। उनमें मदन मोहन मालवीय की तरह शिक्षा के प्रचार-प्रसार की भावना थी। उन्होंने समाज को शिक्षित करने के लिए एक नहीं दर्जनों शैक्षणिक संस्थान का निर्माण किया। उनके बनाए शिक्षण संस्थानों से आज हजारों छात्र पढ़ लिखकर अच्छे-अच्छे पदों पर देश की तरक्की में लगे हुए हैं। जिस एक मानव में इतने महापुरूषों का गुण मौजूद हों, वो निश्चित रूप से कोई महामानव ही रहा होगा।

1987 में भारत के लोकसभा के स्पीकर श्री बलराम जाखड़ ने टी. पी. कालेज में, श्री कीर्तिनारायण मंडल को देखकर अपनी भावना व्यक्त की थी कि मैं अपने राज्य में और अन्य राज्य में बताऊंगा कि बिहार के मधेपुरा में ऐसे भी एक व्यकितत्व हैं, जिन्होंने अपने बदन तक का कपड़ा दान कर महाविद्यालय को स्थापित किया और वह महाविद्यालय आज राज्य स्तरीय महाविद्यालय में सुमार है।

कीर्ति नारायण मंडल की देहिक लीला 7 मार्च 1997 को महाशिवरात्रि के दिन पूरी हुई, लेकिन उनकी कीर्ति आज भी जिंदा है और सदियों तक इस समाज को आलोकित करती रहेगी। उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि तब मानी जाएगी, जब उनके विचारों के अनुरूप सभी शैक्षणिक संस्थान कार्य करें और बेहतर प्रबंधक के रूप में छात्रों का निर्माण करें। इससे गरीब, शोषित एवं वंचित भी समाज एवं राष्ट्र निर्माण में अपना बहुमूल्य योगदान दे सकें और अगली पंक्ति में खड़े हो सकें।

डॉ. नरेश कुमार

बी. एन. मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा के विश्वविद्यालय रसायनशास्त्र विभाग में वरिष्ठ प्रोफेसर और शिक्षाशास्त्र विभाग के प्रोफेसर इंचार्ज हैं। इनका जन्म मधेपुरा जिलान्तर्गत मनहरा गाँव में एक जून 1963 को हुआ है।

इन्होंने टी. पी. काॅलेज, मधेपुरा से इंटर एवं स्नातक और ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा से स्नातकोत्तर एवं पी-एच. डी की डिग्री प्राप्त की है। यह 1996 में एम. एल. टी. काॅलेज, सहरसा में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर (रसायनशास्त्र) बने और 2000 में इनका स्थांतरण स्नातकोत्तर रसायनशास्त्र विभाग में हुआ।इनकी दो पुस्तकें एप्लीकेशन आफ एक्स-रे, स्पेक्टेस्कोपी एवं बेसिक कांसेप्ट आफिसियल इनआर्गेनिक कमेस्ट्री और लगभग तीन दर्जन शोध पत्र प्रकाशित हैं। इनके मार्गदर्शन में 9 शोधार्थियों को पीएच.डी. की उपाधि मिली है। ये भारतीय विज्ञान कांग्रेस, इंडियन केमिकल सोसायटी ऐसोसियन आफ केमिस्ट्री टीचर आदि के सक्रिय आजीवन सदस्य और काउन्सिल आफ केमिकल साइंसेज के सचिव भी हैं।

ये वर्ष 2001 से बीएनमुस्टा के निर्विरोध महासचिव और लगभग दस वर्षों से अधिषद् के निर्विरोध सदस्य हैं। साथ ही कई महाविद्यालयों में विश्वविद्यालय प्रतिनिधि, शासी निकाय के सचिव एवं अध्यक्ष की जिम्मेदारियों का निर्वाहन कर रहे हैं। प्रमोशन सेल के समन्वयक के रूप में शिक्षकों को प्रोन्नति दिलाने और माई बर्थ माई अर्थ मिशन के तहत विश्वविद्यालय परिसर को हरा-भरा बनाने में इनकी अहम भूमिका रही है।