- बी. पी. मंडल साहेब की जयंती के बहाने आपबीती
————————– श्रद्धेय बी. पी. मंडल साहेब को नमन…
—————— सामाजिक न्याय के प्रमुख स्तंभ और प्रखर समाजवादी नेता बी. पी. मंडल साहेब की सौवीं जयंती है। इस अवसर पर मेरी कर्मभूमि मधेपुरा (बिहार) में कई कार्यक्रम आयोजित किए गए। #बी. पी. मंडल साहेब की जयंती के बहाने सामाजिक न्याय की आपबीती#
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मैंने एम. ए. की पढ़ाई के दौरान ही तय कर लिया था कि मुझे डाॅ. भीमराव अंबेडकर के दर्शन पर शोध करना है। मैंने इस बात को ध्यान में रखकर ही स्नातकोत्तर दर्शनशास्त्र विभाग, तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर के अध्यक्ष प्रोफेसर डाॅ. प्रभु नारायण मंडल को अपना शोध निदेशक चुना।
शोध निदेशक चुनने का वाकया भी कुछ खास है। दरअसल पहले मुझे पता चला था कि प्रभु सर पी-एच. डी. नहीं कराते हैं। मेरे मन में बात थी कि चूंकि वे विभागाध्यक्ष हैं, इसलिए पी-एच. डी. करा ही नहीं सकते हैं। ऐसे में मजबूरन मैं अपने शोध निदेशक के रूप में प्रभु सर के अतिरिक्त अन्य नामों पर विचार कर रहा था। अपने एक शिक्षक से मेरी प्रारंभिक बातचीत भी हुई थी। इसी बीच मुझे पता चला कि प्रभु सर पी-एच. डी. करा सकते हैं, लेकिन समयाभाव में नहीं कराते हैं।
फिर तो मैंने तय कर लिया कि मुझे प्रभु सर को ही शोध निदेशक बनाना है। बस मैंने तुरंत सर को फोन लगा दिया। बातचीत कुछ इस प्रकार हुई-
मैं- “मुझे डाॅ. अंबेडकर के दर्शन पर आपके निदेशन में शोध करना है।”
सर-“लेकिन मुझे तो पता चला है कि आपने किसी दूसरे शिक्षक से शोध निदेशक बनने का अनुरोध किया है।”
मैं- “जी। मुझे पता था कि आप पी-एच. डी. नहीं करा सकते हैं। इसलिए एक सर से प्रारंभिक बात किया हूँ। लेकिन अभी तुरंत पता चला है कि आप करा सकते हैं। इसलिए मुझे आपके निदेशन में ही पी-एच. डी. करनी है।”
सर-“अरे प्रायः विद्यार्थी खुद से काम नहीं करना चाहते हैं। इसलिए पी-एच.डी. कराना बंद कर दिए हैं। लेकिन आपको पी-एच. डी. कराने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है। मुझे पता है कि आप सब कुछ अपने से कर सकते हैं।”
मैं-“बहुत-बहुत-बहुत आभार सर।”
फिर मैंने प्रभु सर से मुलाकात की। हमने आपस में काफी चर्चा की और पहले हमारा विषय तय हुआ, ‘जाति आधारित समाज और सामाजिक न्याय : डाॅ. भीमराव अंबेडकर के विशेष संदर्भ में’। मैंने इस पर शोध प्रारूप तैयार किया। सर ने कई बार करेक्शन किया। फिर जब शोध प्रारूप लगभग फाइनल हो गया, तो हम दोनों ने विषय पर पुनः गंभीरता से विचार-विमर्श किया। अंततः मेरा विषय तय हुआ, ‘वर्ण-व्यवस्था और सामाजिक न्याय : डाॅ. भीमराव अंबेडकर के विशेष संदर्भ में’। बकौल प्रभु सर यह पहले वाले से ज्यादा ‘फिलाॅशोफिकल’ था।
बहरहाल टाॅपिक में थोड़े संशोधन के अनुरूप शोध-प्रारूप में भी थोड़ा संशोधन हुआ। फिर ज्यादा ‘फिलाॅशोफिकल’ बनाने के लिए सर ने इसके प्रथम अध्याय में ‘न्याय की अवधारणा : प्राच्य एवं पाश्चात्य’ जोड़ दिया।
वैसे मुझे याद है कि एक बार मेरे एम. ए. का परीक्षाफल आने के पहले ही प्रभु सर ने मुझसे किसी प्रसंग में कहा था कि मैं डाॅ. अंबेडकर पर शोध करूँ। लेकिन शायद उन्हें मेरा डाॅ. अंबेडकर के सामाजिक-राजनीतिक विचारों की ओर अतिरिक्त झुकाव मेरे कैरियर की दृष्टि से उचित नहीं लग रहा था। वैसे वे मेरी बालसुलभ जिद के आगे मजबूर थे, लेकिन ‘टाॅपिक’ को ‘फिलाॅसोफिकल’ बनाने का कोई भी ‘स्कोप’ छोड़ना नहीं चाहते थे।
बहरहाल विभाग में मेरे प्री-पी-एच. डी. सेमिनार की तिथि तय हो गई। इसके पूर्व प्रचलित परंपरा के अनुसार मैंने शोध-प्रारूप की टंकित प्रति विभाग के सभी शिक्षकों को उपलब्ध करा दी। किसी को भी पसंद नहीं आया। सबों ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कोई दूसरा ‘टाॅपिक’ लेने की सलाह दी। एक शिक्षका ने तो ‘टाॅपिक’ देखते ही मेरे शोध-प्रारूप की प्रति फेंक दी। मैं उसे उठाकर पुनः उन्हें दिया।
फिर हम दोनों के बीच बातचीत कुछ इस प्रकार हुई-
शिक्षिका- “ये क्या टाॅपिक लिए हो तुम ? अंबेडकर पर क्या रिसर्च होगा ? और ये प्रभु बाबू को क्या है। उनको बैठे-बिठाए एक पी-एच. डी. मिल जाएगी। काम तो तुम अपने से कर लोगे और उनका नाम हो जाएगा।”
मैं -“ऐसी बात नहीं है मैडम। मैंने खुद यह टाॅपिक चुना है।”
शिक्षिका-“तुम पढ़ने में अच्छे हो, ग्रीक फिलाॅसफी का कोई टाॅपिक लो।”
मैं-“मैडम टाॅपिक तो यही रहेगा। 8 मई को सेमिनार है।”
शिक्षिका- “ठीक है रखो। लेकिन मैं तो विरोध करूँगी। प्रभु बाबू को भी कहूँगी कि ये क्या करा रहे हैं। …और तुम तो खुद को बर्बाद कर ही रहे हो समाज को भी बर्बाद करोगे। वो प्रधानमंत्री तुम्हारी जाति का ही था न, जिसने आरक्षण लागू किया।”
मैं- “मैडम मैं जाति-पाति नहीं मानता हूँ और अभी आपसे बहस भी नहीं करना चाहता। प्रणाम।”
फिर 2014 में बिहार लोक सेवा आयोग, पटना में असिस्टेंट प्रोफेसर के साक्षात्कार के दौरान मेरे साथ भेदभाव किया गया। वहाँ साक्षात्कार बोर्ड के चेयरमेन साहेब भी मेरे पी-एच. डी. टाॅपिक से भङक गये। उन्होंने खुद ‘डाॅ. अंबेडकर’ और ‘आरक्षण’ पर अपनी भड़ास निकाली और मुझसे बिना कुछ पुछे मुझे चंद मिनटों में चलता कर दिया।
फिर तो जो होना था, वही हुआ। जहाँ अन्य सामान्य अभ्यर्थियों को 15 में 12-14 अंक मिले, वहीं मुझे महज 7 अंकों से संतोष करना पङा।
फिर भी साक्षात्कार बोर्ड को धन्यवाद, क्योंकि यदि और एक अंक भी कम मिलता, तो चयन मुश्किल था। धन्यवाद इसलिए भी; क्योंकि यदि एक अंक भी ज्यादा मिलता, तो मेरा नाम तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर या किसी अन्य विश्वविद्यालय में चला जाता और मुझे बी. एन. मंडल विश्वविद्यालय, लालूनगर, मधेपुरा में आने का सौभाग्य नहीं मिल पाता।
…और फिर शायद आज बी. पी. मंडल साहेब की प्रतिमा को नमन करने का अवसर भी प्राप्त नहीं होता।
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25 अगस्त, 2018