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मानवाधिकार दिवस की बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

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मानवाधिकार दिवस की बहुत-बहुत शुभकामनाएं 

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वर्ष 2014 में मेरी पहली पुस्तक ‘सामाजिक न्याय : अंबेडकर-विचार और आधुनिक संदर्भ’ तथा वर्ष 2015 में दूसरी पुस्तक ‘गाँधी-विमर्श’ प्रकाशित हुई थी। महज कुछ महिनों के अंतराल पर प्रकाशित मेरी इन दोनों पुस्तकों को लोगों का अत्यधिक स्नेह मिला।

 

इसके बाद वर्ष 2017 में मेरी तीसरी पुस्तक ‘भूमंडलीकरण और मानवाधिकार’ प्रकाशित हुई। लेकिन इसके बाद मैं अपने विश्वविद्यालय के विभिन्न प्रशासनिक कार्यों में फंस गया और मेरी अकादमिक लेखन-यात्रा थम-सी गई।

 

इधर, कुछ माह पूर्व विश्वविद्यालय के प्रशासनिक पदों से मुक्त होने के बाद पुनः अपनी अकादमिक लेखन-यात्रा को गति देने का प्रयास कर रहा हूँ। इस बीच संक्रमण-काल में लगभग सात वर्षों के अल्पविराम के बाद इसी वर्ष (2024 में) मेरी चौथी पुस्तक ‘गाँधी-अंबेडकर और मानवाधिकार’ प्रकाशित हुई।

 

आशा है कि आने वाले दिनों में कुछ नई सूचनाएं भी आप सबों से साझा करने का अवसर मिलेगा।

 

अंत में विनम्र अनुरोध है कि यथासंभव किसी भी कार्यक्रम में उपहार या सम्मान के रूप में पुष्पगुच्छ या अन्य चीजों की बजाय कोई-न-कोई पुस्तक ही देने का प्रयास करें।

 

बहुत-बहुत धन्यवाद।

 

#पुष्पगुच्छ_नहीं_पुस्तक।

#Not_bouquet_but_book.

 

विश्व मानवाधिकार दिवस की बधाई

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पुस्तक प्रकाशित

ठाकुर प्रसाद महाविद्यालय, मधेपुरा में दर्शनशास्त्र विभागाध्यक्ष एवं बीएनएमयू के उपकुलसचिव (स्थापना) डॉ. सुधांशु शेखर की पुस्तक ‘गाँधी-अंबेडकर और मानवाधिकार’ प्रकाशित हुई है। कुल 202 पृष्ठों की इस पुस्तक को के. एल. पचौरी प्रकाशन, गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश) के तरूण विजय पचौरी ने हार्ड कवर में उच्च गुणवत्ता के साथ प्रकाशित किया है।

 

लेखक डॉ. सुधांशु शेखर ने बताया कि प्रस्तुत पुस्तक में प्रस्तावना एवं उपसंहार सहित कुल तेरह अध्याय हैं। प्रस्तावना में विषय की आवश्यकता को रेखांकित किया है। अध्याय दो से पाँच तक क्रमशः ‘दलित’, ‘स्त्री’, ‘धर्म’ एवं ‘राष्ट्र’ को गाँधी की दृष्टि से समझने की कोशिश की गई है। आगे अध्याय छः से नौ तक पुनः क्रमशः ‘दलित’, ‘स्त्री’, ‘धर्म’ एवं ‘राष्ट्र’ को डॉ. अंबेडकर की दृष्टि से व्याख्यायित किया गया है। तदुपरांत अध्याय दस से बारह तक ‘गाँधी’, ‘डॉ. अंबेडकर एवं ‘गाँधी- अंबेडकर’ की मानवाधिकारों के परिप्रेक्ष्य में समीक्षा की गई है। अंतिम (तेरहवें) अध्याय उपसंहार में निष्कर्ष रूप में कहा गया है समग्रता में देखने पर गाँधी-अंबेडकर एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी नहीं, पूरक साबित होते हैं।

उन्होंने बताया कि इस पुस्तक में महात्मा गाँधी एवं डॉ. भीमराव अंबेडकर के कुछ प्रमुख विचारों को उसके मूल अर्थ संदर्भों के साथ प्रस्तुत किया गया है। इस क्रम में पक्षपात एवं रागद्वेष से बचने की हरसंभव कोशिश की गई है।

उन्होंने बताया कि महात्मा गाँधी और डॉ. भीमराव अंबेडकर दोनों की सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थिति और वैचारिक निर्मिति भिन्न-भिन्न है, जो उनके जीवन-दर्शन में मौजूद विभिन्नताओं का मुख्य कारक है।

उन्होंने बताया कि दलित-मुक्ति के सवालों और विशेषकर मुक्ति के साधनों या तरीकों को लेकर गाँधी-अंबेडकर के बीच काफी मतभेद रहे हैं। ये मतभेद इतिहास में दर्ज हैं और इनसे इनकार करना न तो उचित है और न ही वांछनीय।

उन्होंने कहा कि हम दोनों के विचारों के बीच तुलना करने और उनमें से किसी को भी श्रेष्ठ बताने हेतु भी स्वतंत्र हैं, लेकिन किसी एक विचारक का अंधभक्त बनकर दूसरे के योगदानों को पूरी तरह नजरअंदाज करना और कुत्सित स्वार्थवश इन मतभेदों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना, तो सरासर अन्याय एवं बौद्धिक छल भी है।

उन्होंने बताया कि गाँधी और डॉ. अंबेडकर दोनों ने अपने युगधर्म को समझा और तत्कालीन चुनौतियों का अपने-अपने ढंग से मुकाबला किया। इस क्रम में दोनों को जब जैसा उचित लगा, तब उन्होंने वैसा कदम उठाया।

उन्होंने बताया कि बेशक ज्यादातर मामलों में दोनों के लक्ष्य एक होते हुए भी उनकी राहें जुदा थीं। तात्कालीन परिस्थितियों में गाँधी और डॉ. अंबेडकर में से किसका रास्ता ज्यादा सही था, यह कहना तो बहुत कठिन है। लेकिन, यह बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि यदि गाँधी-अंबेडकर साथ-साथ चले होते, तो भारत की तकदीर कुछ और ही होती!

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