भिखारी ठाकुर
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जन्मदिन : 18 दिसम्बर ( 1887 )
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लोक संस्कृति के नायक भिखारी ठाकुर और महेन्द्र मिसिर हमारे समाजगत बोध में आज भी बहुत प्रासंगिक और बहुत बडा़ ‘ स्पेस ‘ लेते हैं । घेरते हैं । बाजारू वर्चस्व वाली अर्थव्यवस्था के इस दौर में तो वे जन आंदोलन ही नहीं , वर्ग श्रेणियों में छिपी व्यापक परिघटना सी दिखते हैं । कृषक समुदाय की संस्कृति मतलब ‘ लोक ‘ की अनदेखी के इस क्रूर दौर में भिखारी ठाकुर को याद करना ,जो कुछ अवांछित चल रहा है , उसकी मुखालिफत भी है । भिखारी ठाकुर को याद करना चांद की चांदनी और सूरज के झक उजाले के बीच का संत्रास और मुक्ति की आकांक्षा दोनो है । यह जीतने – हारने , खोने – पाने , अपने होने या न होने की मजबूरियों से निरपेक्ष सच्ची और सार्थक सक्रियता का ‘ लोक ‘ रचना है । नमन भिखारी ठाकुर ।
शहीद – ए – आजम भगत सिंह और महान क्रांतिकारी चेग्वेरा जिनकी प्रेरणा रहे , जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कॉमरेड चंदू ( चन्द्रशेखर ) की भिखारी ठाकुर पर लिखी एक पतली सी किताब , संभवतः शोध प्रबंध, मुझे किससे मिली , याद नहीं , कल से घर में खोज रहा हूं । नहीं मिल पायी है ।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने उनको ‘ अनगढ़ हीरा ‘ कहा था । जगदीशचंद्र माथुर ने ‘ भरत मुनि की परंपरा का कलाकार ‘। उनको ‘ भोजपुरी का शेक्सपीयर ‘ भी कहा गया । उनका जन्म 18 दिसम्बर, 1887 को बिहार के सारन ज़िले के कुतुबपुर ( दियारा ) गांव में नाई परिवार में हुआ था ।
उनका रचनात्मक संसार विषमताओं , सामंती हिंसा, छल-प्रपंच का प्रभावी प्रतिकार है । वे ऐसी तमाम गांठों को खोलते हैं, जिन्हें खोलते कोई डरता है । इसीलिए भिखारी ठाकुर की रचनाओं में हाहाकार है।
भिखारी ठाकुर अपने नाटकों से ब्रिटिश राज के खिलाफ लोगोंं को जागरूक करते थे । कोलकाता में तो उनके नाटकों का बहुत बड़ा दर्शक वर्ग था । इससे अंग्रेज सरकार सतर्क हुई । उन पर पाबंदी भी लगी ।
यह भिखारी ठाकुर ही थे कि अपने नाटकों की लोकप्रियता दर्शकों की मौजूदगी से तय करते थे । भिखारी ठाकुर के स्त्री-पात्र सिर्फ विलाप करना ही नहीं जानते हैं । वे अपने हक के लिए लड़ते और तर्क भी करते हैं । भिखारी ठाकुर से कभी पूछा गया था कि वे कैसे तय करते हैं कि उनकी रचना कम या ज्यादा अच्छी है । भिखारी ठाकुर ने जवाब दिया, ‘लोगों की भीड़ देखकर’ ।
उनके लिए न कोई काव्यशास्त्र मानक था और न नाटय़शास्त्र । जनता के कवि की कसौटी सिर्फ और सिर्फ जनता की उपस्थिति थी। भिखारी ठाकुर के नाटकों के दौरान जनता की उपस्थिति नितांत भिन्न किस्म की होती थी । दर्शक कब नाटक के पात्र में बदल जाता और पात्र में बदलकर नाटक की कहानी में शामिल हो जाता था, इसकी उसे सुधि ही नहीं होती ।
भिखारी ठाकुर के जीवन पर केंद्रित अपने उपन्यास सूत्रधार में संजीव बताते हैं कि हजारीबाग में कहीं बेटी बेचवा नाटक की प्रस्तुति हो रही थी, जिसे देख दर्शक फूट-फूट कर रोने लगे । वहां बेटी बेचने की परंपरा थी । नाटक के दूसरे दिन हजारों लोगों की सभा हुई, जिसमें शिव की प्रतिमा पर हाथ रखकर बेटी न बेचने की कसम खाई गई । यानी भिखारी ठाकुर के दर्शकों ने इलाके से इस कुप्रथा के खात्मे की जिम्मेदारी ले ली ।
बेटी बेचवा नाटक का असली नाम बेटी वियोग है । बेटी बेचवा नाम तो समाज में बेटी बेचने की प्रथा से दुखी जनता ने अपनी ओर से दिया था । पाठक या दर्शक द्वारा रचना के नामकरण की यह मिसाल भी अनूठी है । कहने की जरूरत नहीं कि बेटी बेचने की प्रथा का संबंध गरीबी और भुखमरी से है ।
गोदान में प्रेमचंद भी बता चुके हैं, जब होरी को इसी कारण अपनी बेटी रूपा को बेचना पड़ा था । सारे हास्य और प्रहसन के बावजूद भिखारी ठाकुर के नाटकों में करुणा की एक गहन अंतर्धारा बहती है, जिसका संबंध स्त्री की व्यथा से है । बिदेसिया से लेकर बेटी वियोग, ननद-भौजाई, विधवा विलाप और गबर-घिचोर जैसे नाटक पूरब की स्त्री की पीड़ा की दास्तान हैं ।
आर्थिक दिक्कतें पतियों को परदेश जाने पर मजबूर करती हैं और घर में अकेली छूट गई स्त्री का जीवन तमाम संकटों से घिर जाता है । बिदेसिया में भिखारी ठाकुर हमें इसका एहसास कराते हैं । वे हमें यह भी बताते हैं कि किस तरह विधवा के लिए लागू होने वाले विधि-निषेधों का संबंध घर की संपत्ति से है ।
विधवा के विलाप के मूल में संपत्ति की चिंता है । इसका संबंध भी गरीबी से है । लेकिन ऐसा नहीं कि भिखारी ठाकुर की स्त्रियां सिर्फ विलाप करना ही जानती हैं । वे अपने हक के लिए लड़ती और तर्क भी करती हैं ।
दरअसल भिखारी ठाकुर मुकम्मल कलाकार ही नहीं, मुकम्मल मनुष्य भी थे । दुर्भाग्य से हमारा कुलीन वर्ग इस कदर हीन-ग्रंथि से ग्रस्त है कि उपाधि, इनाम, इकराम के बिना उसे अपने मुकम्मल होने का एहसास ही नहीं होता ।
कई बार लगता है कि हमारे विश्वविद्यालयों में चलने वाले विमर्शो को ठेठ भारतीय होने के लिए भिखारी ठाकुर से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है । सीखना यह भी होगा कि मुकम्मल मनुष्य होने के लिए बाहरी उपाधियां नहीं, भीतरी संपन्नता जरूरी है । भिखारी ठाकुर जैसे लोक कलाकार ही भारत के असली विश्वविद्यालय हैं, जिनसे सीखे बिना हमारे विश्वविद्यालय अपने उद्देश्य में कामयाब नहीं हो सकते हैं।
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भिखारी ठाकुर
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विषय कुछ और था
शहर कोई और
पर मुड़ गई बात भिखारी ठाकुर की ओर
और वहाँ सब हैरान थे यह जानकर
कि पीते नहीं थे वे
क्योंकि सिर्फ़ वे नाचते थे
और खेलते थे मंच पर वे सारे खेल
जिन्हें हवा खेलती है पानी से
या जीवन खेलता है
मृत्यु के साथ
इस तरह सरजू के कछार-सा
एक सपाट चेहरा
नाचते हुए बन जाता था
कभी घोर पियक्कड़
कभी वर की ख़ामोशी
कभी घोड़े की हिनहिनाहट
कभी पृथ्वी का सबसे सुंदर मूर्ख
और ये सारे चेहरे सच थे
क्योंकि सारे चेहरे हँसते थे एक गहरी यातना में
अपने मुखौटे के ख़िलाफ़
और महात्मा गाँधी आकर
लौट गए थे चम्पारन से
और चौरीचौरा की आँच पर
खेतों में पकने लगी थीं
जौ-गेहूँ की बालियाँ
पर क्या आप विश्वास करेंगे
एक रात जब किसी खलिहान में चल रहा था
भिखारी ठाकुर का नाच
तो दर्शकों की पाँत में
एक शख़्स ऐसा भी बैठ था
जिसकी शक्ल बेहद मिलती थी
महात्मा गाँधी से
इस तरह एक सांझ से
दूसरी भोर तक
कभी किसी बाज़ार के मोड़ पर
कभी किसी उत्सव के बीच की
खाली जगह में
अनवरत चलता रहा
वह अजब बेचैन-सा चीख़-भरा नाच
जिसका आज़ादी की लड़ाई में
कोई जिक्र नहीं
पर मेरा ख़याल है
चर्चिल को सब पता था
शायद यह भी कि रात के तीसरे पहर
जब किसी झुरमुट में
ठनकता था गेहुंअन
तो नाच के किसी अँधेरे कोने से
धीरे-धीरे उठती थी
एक लंबी और अकेली
भिखारी ठाकुर की आवाज़
और ताल के जल की तरह
हिलने लगती थीं
बोली की सारी
सोई हुई क्रियाएँ
और अब यह बहस तो चलती रहेगी
कि नाच का आज़ादी से
रिश्ता क्या है
और अपने राष्ट्रगान की लय में
वह ऐसा क्या है
जहाँ रात-बिरात जाकर टकराती है
बिदेसिया की लय !!!
* केदारनाथ सिंह
( उत्तर कबीर और अन्य कविताएं )